Sunday, December 30, 2012

ये आंसू भी है बड़े जालीम

ये आंसू भी है बड़े जालीम
बहते है एक दो दीन
कब रुक जातें है, पता ही नहीं चलता
और रफ़्तार जिन्दगी की
चलती रहती है तेज रात दीन

उठती है एक चिनगारी
दीखाने ख्वाब शोलों के
जब आँख खुलती है, बुज़ती है
और हवायें जमानेकी
चकराती है, हसती है

हर सवालका हल है सड़क
हर फैसला छोड़ना है उस पर
पल दो पल जांकते है अन्दर
बस, फिर चलता रहता है कारवां
वोही सड़क पर, बीना मंजील
महफिलें सफ़र

जलातें है मोमबत्तीयां जो
अंधेरेमें देखाते है वो
भेडीयोंको तरीके तरह तरहके
लुटी जाती है कैसे
औरतकी इज्ज़तको
बेची जाती है कैसे
उसकी इस्मतको

ये आंसू भी है बड़े जालीम
बहते है एक दो दीन
भरत शाह

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